हाकिमों से जवाब तलब करने वाले नन्हे सिपाहीदमयंती दत्ता | सौजन्य: इंडिया टुडे | नई दिल्ली, 11 जून 2012 | अपडेटेड: 21:13 IST http://aajtak.intoday.in/story.php/content/view/699875/YOUNG-RIGHT-ACTIVIST-THEY-ASK-THE-RIGHT-QUESTIONS.html फरवरी माह. लखनऊ की एक सुहानी सुबह. सिटी मॉन्टेसरी स्कूल की राजाजीपुरम शाखा में पांचवीं क्लास के बच्चों को महात्मा गांधी पर कोई अध्याय पढ़ाया जा रहा था, तभी अचानक एक हाथ उठा. बालों की चुटिया बनाए एक बच्ची ने टीचर से पूछ लिया, ''उन्हें राष्ट्रपिता की उपाधि किसने दी?'' दस साल की ऐश्वर्या पाराशर ऐसी जिज्ञासाओं को पहले भी जाहिर कर चुकी थी, लेकिन इस बार के सवाल ने बड़े-बड़ों को चौंका दिया. कहीं जवाब न मिलने पर ऐश्वर्या ने 13 फरवरी को सूचना के अधिकार (आरटीआइ) कानून का प्रयोग कर सीधे प्रधानमंत्री से यह सवाल करने का फैसला किया. पाराशर सात साल की उम्र से ही आरटीआइ का इस्तेमाल करती रही है. देश में सूचनाओं के लिए आरटीआइ का इस्तेमाल करने वाली नई पीढ़ी में वह सबसे कम उम्र की है. बाकी बच्चे जहां दूसरी चीजों के लिए स्कूलों में होड़ मचाए रहते हैं, सूचना के ये सिपाही जजों के सामने तारीख का इंतजार करते नजर आते हैं. अपने बस्ते और किताबें लिए इन्हें सरकारी दफ्तरों की कतार में खड़े रहना मंजूर है क्योंकि हॉस्टल में मिलने वाले घटिया खाने से लेकर राशन की दुकानों में फैले भ्रष्टाचार तक किसी भी मुद्दे पर सच्चाई को सामने लाने और इंसाफ सुनिश्चित करने के लिए ये बच्चे व्यवस्था से किसी भी कीमत पर लड़ने को तैयार हैं. 22 साल के इंजीनियरिंग छात्र हर्षवर्धन रेड्डी के खाते में 300 से ज्यादा आरटीआइ आवेदन दर्ज हैं. वे कहते हैं, ''यह काफी असरदार है. बस आपमें साहस और धैर्य होना चाहिए.'' ऐसे बच्चों को अकसर स्कूल-कॉलेजों से निकाल दिया जाता है या उन्हें फिर घर, पड़ोस और सरकारी बाबुओं की नाराजगी झेलनी पड़ती है. फिर भी प्रशासनिक गर्द को साफ करने की इनकी लगन कम नहीं होती. बीस से ज्यादा आरटीआइ आवेदन कर चुके हैदराबाद के 21 वर्षीय छात्र के.एन. साईं कुमार कहते हैं, ''जब कोई मुझे आरटीआइ कार्यकर्ता कहता है, तो मुझे गर्व होता है.'' स्कूल की नोटबुक पर छोटे बच्चे की लिखावट में लिखे गए सवाल को इस देश की सरकार भी नहीं टाल पाती. प्रधानमंत्री कार्यालय से गृह मंत्रालय और राष्ट्रीय अभिलेखागार के गलियारों में घूमते ऐश्वर्या के पत्र ने आखिरकार एक राष्ट्रीय रहस्य को उजागर कर दियाः स्कूली किताबों में लगातार राष्ट्रपिता के तौर पर जिक्र होने के बावजूद गांधीजी को कभी भी आधिकारिक रूप से यह उपाधि नहीं दी गई थी. पाराशर को जवाब में बताया गया कि उसने जो सवाल पूछा है, उसके जवाब में कोई आधिकारिक दस्तावेज मौजूद नहीं है और वे चाहें तो खुद आकर अभिलेखागार में इसे देख सकती हैं. ऐश्वर्या कहती हैं, ''मैंने सोचा था कि मैं कोई आसान सवाल पूछ रही हूं.'' सूचना का अधिकार कानून 2005 से ही काफी प्रभावशाली रहा है. युवाओं की बगावत वाले इस दौर में ऐसा लगता है जैसे इसने लोगों के जानने के अधिकार की नई राह ही खोल दी है. दुनिया भर में छात्रों के विरोध प्रदर्शन बड़े राष्ट्रीय आंदोलनों में तब्दील हो रहे हैं: एथेंस से रोम, सैन फ्रांसिस्को से लंदन और अरब विद्रोह से लेकर चिली में छात्र आंदोलन तक. युवा आरटीआइ कार्यकर्ता भी इस व्यवस्था को चलाने के अलग तरीके की मांग कर रहे हैं, अलबत्ता उनके हाथों में पत्थर और आंसू गैस के गोले नहीं हैं. वे कानून की सीमाओं के भीतर रहकर अपने समुदाय के साथ मिल-जुलकर इंसाफ की मांग करना पसंद कर रहे हैं. यह इंसाफ न सिर्फ उनके निजी जीवन में बदलाव के लिए है बल्कि कुशासन और समाज में फैले भ्रष्टाचार के खिलाफ है. भारत में आरटीआइ अभियान की शुरुआत करने वाले नेशनल कैंपेन फॉर पीपल्स राइट टु इन्फॉर्मेशन (एनसीपीआरआइ) के निखिल डे कहते हैं, ''यह काफी उत्साहजनक संकेत है. हम स्कूलों में जाते हैं और पाते हैं कि आरटीआइ कानून के प्रति काफी जागरूकता है. कई प्रगतिशील स्कूलों ने आरटीआइ क्लब भी खोल रखे हैं.'' एनसीपीआरआइ को अकसर ऐसे बच्चों के बारे में मित्रों या उनके परिजनों के माध्यम से खबर मिलती रहती है जो आरटीआइ आवेदन डालते हैं. जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में तुलनात्मक राजनीति विज्ञान के प्रमुख प्रो. कमल मित्र चेनॉय का मानना है कि यह चलन इस प्रचलित धारणा को ध्वस्त करता है कि आज का युवा आत्मकेंद्रित है और सामाजिक सरोकारों से कटा हुआ है. वे कहते हैं, ''सिविल सोसायटी के कार्यकर्ता घोटालों और भ्रष्टाचार को आरटीआइ के माध्यम से उजागर कर रहे हैं, ऐसे में हर युवा बदलावकारी भूमिका निभाना चाहता है. वे जानते हैं कि यह व्यवस्था प्रशासन और कानून के साथ भागीदारी से चलती है.'' गुजरात के सालड़ी में रहने वाले 18 साल के भद्रेश वामजा ने अपने गांव के भले के लिए आरटीआइ का इस्तेमाल किया. उन्हीं के प्रयासों का नतीजा था कि गुजरात सरकार ने अप्रैल में एक आदेश पारित करते हुए राज्य की सभी सस्ते गल्ले की दुकानों के लिए राशन की आवक और स्टॉक के विवरण को सार्वजनिक करना अनिवार्य बना दिया. यह कहानी पिछले साल की है जब श्री विवेक विद्या विकास कॉमर्स कॉलेज में पढ़ने वाले भद्रेश के दिमाग में यह सवाल आया कि उनके गांव की दो सरकारी राशन की दुकानें ग्रामीणों को राशन देने से मना क्यों करती हैं. उन्होंने 11 फरवरी, 2011 को आरटीआइ आवेदन करके तहसीलदार से इन दुकानों पर भेजे जाने वाले राशन का विवरण मांगा. गांववालों के समर्थन और अहमदाबाद की एक स्वयंसेवी संस्था के सहयोग से वामजा ने इस मुद्दे पर अभियान छेड़ दिया. कई आरटीआइ आवेदनों और पुलिस में की गई शिकायतों के बाद आखिरकार दुकानदारों के कान मरोड़े गए और ग्राहकों को पूरी आपूर्ति सुनिश्चित की गई. अकसर ऐसा होता है कि निजी लड़ाइयां सार्वजनिक संघर्षों में बदल जाती हैं. ऐसा ही कुछ हुआ पुणे के एमआइटी स्कूल ऑफ गवर्नमेंट में पढ़ने वाले हर्षवर्धन रेड्डी के साथ, जिन्हें बगैर किसी कारण से दो साल से पासपोर्ट जारी नहीं किया जा रहा था. उन्होंने बताया, ''मुझे अखबार में छपी 2009 की एक रिपोर्ट से आरटीआइ के बारे में पता चला. मैंने इसे अपने मामले में आजमाने का फैसला किया. मैंने आरटीआइ फाइल की, पुलिस से मिल रही धमकियों के बावजूद उसे उपभोक्ता फोरम में खींचा, छह महीने तक अदालत में अपने पक्ष में दलीलें देता रहा, जिसके बाद मुझे पासपोर्ट मिल ही गया.'' रेड्डी ने अब कई मुद्दों पर आरटीआइ आवेदन कर दिया हैः उन गरीब किसानों के लिए जिनका लोन सरकारी बैंकों ने रोक रखा है, या फिर जिन्हें जन्म प्रमाणपत्र, जमीन के कागजात नहीं मिले हैं, श्रमिकों को उनके वेतन और मुआवजा दिलवाने के लिए आवेदन, या फिर आंध्र प्रदेश स्थित उनके गांव करनी में प्रदूषण फैलाने वाली चावल की एक मिल के खिलाफ आवेदन. वे बताते हैं, ''लोग मेरे पास इस उम्मीद से आते हैं कि मैं उनकी समस्या हल करने के लिए सबसे बढ़िया तरीका सुझऊंगा.'' साईं कुमार की शुरुआत भी निजी वजहों से ही हुई. पिछले साल उन्होंने उस सरकारी स्कूल के संचालन और अनुदान के बारे में सूचना हासिल करने के लिए आरटीआइ डाला जहां वे खुद पढ़ते थे और उनकी मां के. रुक्मिणी बाई पढ़ाती थीं. इसके तुरंत बाद उनकी मां को कोई नोटिस दिए बगैर नौकरी से हटा दिया गया. साईं ने लड़ाई जारी रखी और फरवरी में दोबारा उनकी मां की नौकरी बहाल हो गई. हैदराबाद की उस्मानिया यूनिवर्सिटी से मान्यताप्राप्त एवी कॉलेज में बीएससी अंतिम वर्ष के छात्र साई कहते हैं, ''मैं गरम स्वभाव का था और किसी भी गलत चीज पर मेरा पारा चढ़ जाता था. पिछले कुछ महीनों में आरटीआइ के मेरे अनुभवों ने मुझे काफी संतुलित बनाया है. अब मेरे लिए भ्रष्टाचार से लड़ाई एक उद्देश्य है और मैं फिलहाल शिक्षा के अधिकार से जुड़े आरटीआइ मामलों पर काम कर रहा हूं.'' आरटीआइ कार्यकर्ताओं की राह आसान नहीं है. जैसा कि निखिल डे कहते हैं, ''किसी नए शख्स को आरटीआइ आवेदन तैयार करना ही जटिल लग सकता है.'' यदि सूचना अपर्याप्त हुई, तो दोबारा आवेदन करना पड़ता है, लगातार लगे रहना होता है और वकीलों तथा जजों के सहयोग की भी जरूरत होती है. कंज्यूमर यूनिटी ऐंड ट्रस्ट सोसायटी द्वारा 2010 में किए गए आरटीआइ ग्राउंड रियलिटीज सर्वेक्षण के मुताबिक, सिर्फ 32 फीसदी लोगों को पता है कि आवेदन सादे कागज पर किया जा सकता है, 27 फीसदी लोगों को फीस की जानकारी है और 14 फीसदी लोगों को जवाब मिलने के लिए जरूरी 30 दिनों के प्रावधान की जानकारी है. इसके अलावा, आम तौर पर आरटीआइ कार्यकर्ता अपनी लड़ाई में अकव्ले होते हैं और काफी जोखिम भरा काम करते हैं. 2005 से लेकर अब तक 50 से ज्यादा आरटीआइ कार्यकर्ताओं की हत्या की जा चुकी है. डे कहते हैं, ''जरूरी सवाल उठाने वाले किसी भी शख्स की राह मुश्किल ही होती है, लेकिन युवा अकसर सुरक्षित रहते हैं क्योंकि वे व्यापक हितों के मसलों पर सवाल उठाते हैं.'' पाराशर के मामले में तो उनके साहस के पीछे उनके एक्टिविस्ट माता-पिता खड़े होते हैं. मसलन, सितंबर 2009 में स्वाइन फ्लू के कहर के समय तीसरी में पढ़ने वाली पाराशर की नजर अपने स्कूल के ठीक सामने कूड़े के एक ढेर पर पड़ी. उसकी मां उर्वशी शर्मा सामाजिक कार्यकर्ता हैं. उन्होंने अपनी बच्ची का आवेदन मुख्यमंत्री कार्यालय (सीएमओ) तक पहुंचाने में मदद की. महीने भर बाद जब शिकायत की स्थिति जानने के लिए दोबारा आवेदन किया गया, तो सीएमओ ने बताया कि मूल आवेदन कहीं गुम हो गया है. इसके बाद सीएमओ में तीसरा आवेदन डाला गया यह जानने के लिए कि किस अधिकारी के हाथों आवेदन गुम हुआ था. पाराशर कहती हैं, ''अब तक जवाब नहीं आया, लेकिन कूड़ा हट गया और वह जमीन वापस मेरे स्कूल को लौटा दी गई जिस पर स्कूल ने बाद में एक पुस्तकालय खोल दिया.'' आरटीआइ के सारे सिपाहियों की आपबीती एक-सी नहीं होती. दिल्ली के 18 वर्षीय 12वीं के छात्र मोबश्शिर सरवर के लिए उनकी लड़ाई एक दुःस्वप्न बन गई है. जामिया मिल्लिया से संबंध अपने स्कूल के साथ वे ऐसे टकराव में फंस गए कि पिछले दो साल के दौरान उन्हें स्कूल से निकाल दिया गया और 12वीं की परीक्षा देने से रोक दिया गया. सरवर ने स्कूल को अदालत में खींच लिया है. दोनों के बीच झ्गड़े की वजह रहे करीब 100 आरटीआइ आवेदन जो सरवर ने अलग-अलग संवेदनशील मसलों पर डालेः स्कूल के खर्चों का हिसाब, अध्यापकों की नियुक्ति, छात्रावासों में दिए जाने वाले खाने को लेकर नियम-कानून, इत्यादि. वे कहते हैं, ''स्कूल के डायरेक्टर सूचना हासिल करने के मेरे प्रयासों को आदतन बताते रहे क्योंकि मैं ऐसे सवाल उठा रहा था जिससे उन्हें दिक्कत हो रही थी.'' जब स्कूल प्रशासन नेआवेदनों को अनसनुना कर दिया तो उन्होंने 18 मार्च, 2011 को दिल्ली हाइकोर्ट में एक याचिका लगाई. वे कहते हैं, ''अदालत ने स्कूल से पूछा कि मामला क्या है तो स्कूल ने आरोप लगाया कि मैं बदनाम करने की मंशा से आरटीआइ का दुरुपयोग कर रहा हूं. अगर वे ईमानदार होते, नियम-कानूनों का पालन करते तो उन्हें बदनाम होने का डर क्यों होता?'' सरवर को भारी नुकसान उठाना पड़ा. इस साल की शुरुआत में जब उनके साथी परीक्षाओं की तैयारी में लगे हुए थे, तब बिहार के मधेपुरा का रहने वाला यह छात्र इम्तिहान देने की इजाजत लेने के लिए जमीन-आसमान एक किए हुए था. वे बताते हैं, ''उन्होंने कहा कि मेरी उपस्थिति कम है जबकि मैं नियमित रूप से कक्षा में जाता था.'' इसके बाद उन्होंने स्कूल के खिलाफ एक और रिट याचिका दाखिल की. और परीक्षा के एक दिन पहले अदालत से शाम को परीक्षा में बैठने की अनुमति मिली. वे कहते हैं, ''वे सिर्फ मुझे परेशान कर रहे थे.'' पिछले दो साल में उन्हें भारी परेशानियां उठानी पड़ीं, उन पर हमले हुए और जान से मारने की धमकी भी मिली. वे जब भी स्कूल जाते, दर्जन भर सुरक्षाकर्मी उनके पीछे चलते. वे इसे देखकर रोमांचित भी होते थे, ''मुझे तो राहुल गांधी और प्रधानमंत्री जितनी सुरक्षा मिलती है.'' इस दौरान उसके पिता सरवर आसमी और मां नुसरत बानो लगातार उनकी हौसलाअफजाई करते रहे. जब स्कूल ने उन्हे निकाला, तो अपने पिता की सलाह पर वे मामले को अदालत में ले गए. उन्हें बस एक ही मलाल है कि उन्होंने इस लड़ाई में अपने दोस्तों को खो दिया. वे कहते हैं, ''मेरे साथ खड़े होने में सबको डर लगता है.'' इसके बावजूद सूचना के ये सिपाही आरटीआइ का आकर्षण नहीं छोड़ पा रहे. इससे उनकी जिंदगी में पसरी एकरसता टूटती है और प्रेरणा मिलती है कि वे अपने पीछे एक विरासत छोड़ रहे हैं. कुछ के लिए आरटीआइ पर काम करना एक बड़ा अनुभव और सबक है. सरवर कहते हैं, ''मैं इतनी बार अदालतों के चक्कर लगा चुका हूं कि अब सारे नियम-कायदे जान गया हूं.'' वे अब लॉ स्कूल की प्रवेश परीक्षा की तैयारियों में जुट गए हैं. वामजा अपने गांव में युवाओं का एक समूह चलाते हैं जिसके माध्यम से उन्होंने गांववालों की मदद के लिए 25 से ज्यादा आवेदन कर डाले हैं. वे कहते हैं, ''आरटीआइ से उन्हें रोज एक नया विषय सीखने को मिलता है.'' कुछ का मानना है कि आरटीआइ समाज को योगदान देने के लिहाज से अहम है. सरवर कहते हैं, ''अगर हम लोगों का भला नहीं कर पाए तो फायदा ही क्या है?'' पाराशर अपने आदर्श पुरुष महात्मा गांधी जैसा बनना चाहती हैं, ''मैं मेडिसिन पढ़कर गरीबों की सेवा करना चाहती हूं.'' साईं कुमार को लगता है कि आरटीआइ से उन्हें अपने दोस्तों और शिक्षकों के बीच सम्मान हासिल हुआ है. लोग उनके पास अपनी समस्याएं लेकर आते हैं, तो उन्हें अपने होने का उद्देश्य समझ में आता है. वे कहते हैं, ''वे जानते हैं कि मैं उनकी मदद के लिए जो हो सकव्गा, करूंगा.'' कुछ समय पहले तक यह देश संवेदनहीन छात्रों का रोना रोता था. चेनॉय कहते हैं, ''आपके पास एक समूची पीढ़ी है जिसे लगता है कि उसके साथ कुछ गलत हो रहा है और कुछ बदला जाना चाहिए.'' उनके पास वक्त है, ऊर्जा है, इच्छाशक्ति है और अपने तथा दूसरों का जीवन बेहतर बनाने के तरीके हैं. उन्हें जो प्रोत्साहन, सांस लेने की जगह और मान्यता चाहिए, उसके लिए आरटीआइ उनके साथ खड़ा है. -आशीष मिश्र, श्रव्या जैन, अदिति पै, मोना रामावत और देविका चतुर्वेदी |
Thursday, June 28, 2012
हाकिमों से जवाब तलब करने वाले नन्हे सिपाही
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